ऑनलाइन शिक्षा-3 बेपरवाह आदर्शों की तात्कालिक राहत।

 


 


 



आनंद सिंह 'मनभावन'



 वैश्विक महामारी के इस दौर में ठप्प पड़े व्यवसायों में से एक सबसे महत्वपूर्ण अंग और लगभग व्यवसाय बन चुकी 'शिक्षा के व्यवसाय' पर इस लॉकडाउन का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है।विद्वतजन जानते होंगे कि मार्च अप्रैल और मई का महीना शिक्षा के 'उद्यमियों' के लिए कितना 'कामधेनु महत्व' का होता है।एडमिशन-री एडमिशन,परिचय पत्र,अलग-अलग दिनों के लिए अलग गणवेश,जूते, कॉपी-किताब,फर्नीचर, आवागमन, विकास,और स्थाई गणवेश के नाम पर की जा रही 'वसूली' का आनंद हर उस काउंटर पर बैठे अति विनम्र व्यक्ति के चेहरे पर देखी जा सकती है जो, अपने पाल्यों को लिए काउंटर के दूसरी तरफ धूप,धूल,और भीड़ में अपने सर पर अभाव,उधार,और जरूरत का छाता लिए इस इंतज़ार में अपने पसीने से अपने सूखे होठों को गीला करते अभिभावकों को देखकर होती है। जो इस प्रतीक्षा में होते हैं कि इस  काउंटर से छूटकर दूसरे काउंटर तक जाने से पहले कहीं पसीना न सूख जाय। बार- बार अपनी नगदी, एटीएम, और बैंक बैलेंस का 'इक्वेशन' अपने मन मे ही 'सॉल्व' करते,हाथ में एडमिशन की पर्ची के गुण-दोष जांचते अभिभावकों  के लिए ऑनलाइन शिक्षा महज़ फीस वसूली के लिए जुबान बन्द करने का एक साधन होकर रह गई है।
यद्यपि यह सबको पता है कि उच्च शिक्षा की बात इसमे अपवाद है।क्योंकि वहाँ पर इस पद्धति का महत्व भी है और आवश्यकता भी। लेकिन जूनियर कक्षाओं में जहाँ बच्चों को देर तक टीवी देखते रहने से आंखों पर चश्मा लग जाने की नसीहत देने वाले वही अध्यापक और स्कूल प्रबंधन, इस ऑनलाइन शिक्षा के तात्कालिक विकल्पों को दूरगामी और भविष्य की आवश्यकता बताते हुए नहीं थक रहा।उनके पास इस बात का कोई तर्कयुक्त उत्तर नही है कि आठ विषयों को पढ़ने वाला छोटा बच्चा यदि एक विषय की ऑनलाइन क्लास के लिए आधे घंटे तक अपने लैपटॉप अथवा मोबाइल पर रहता है तो उसको अपने सारे विषयों के लिए कितनी देर तक मोबाइल देखते रहना होगा?और उन मासूम बच्चों पर इसका दूरगामी परिणाम क्या होगा?अब जबकि सारे विद्यालयों ने अपने-अपने विद्यालय की समय सारणी तक बनाकर अभिभावकों तक सिर्फ इसलिए भेज दी है, जिससे अभिभावकों को फीस देने के लिए बाध्य किया जा सके।क्योंकि उस समय अभिभावकों को देने के लिए उनके पास एक जवाब होगा कि हमने क्लासेज़ शुरू कर दी हैं अतः फीस लेना हमारा धर्म है।प्रायः सभी लोग जानते होंगे कि पहले शिक्षण पद्धति में  सत्र जुलाई से अप्रैल तक का होता था,आज भी वही स्थिति है लेकिन कुछ दिन क्लास चलाकर होमवर्क देने और फिर छुट्टी करने के पीछे की कड़वी सच्चाई सिर्फ ये है कि इस दौरान 'मैक्सिमम ऐडमिशन' और 'मनचाही वसूली' की जा सके।
आधिकारिक रूप से और प्रभावशाली ढंग से कक्षाएं आज भी जुलाई माह से ही चलती है।मार्च -अप्रैल में तीन महीने की फीस,वाहन शुल्क,गणवेश,परिचय पत्र,अलग-अलग दिनों के लिए अलग गणवेश और जूते, प्रवेश-पुनः प्रवेश,और तो और, स्थानान्तरण प्रमाण पत्र पर भी शुल्क लेने और उससे एक कदम आगे जाकर काउंटर साइन के नाम पर भी पैसे वसूले जाते हैं।
सही मायने में  तमाम तकनीकि और व्यवहारिक अवरोधों को के बावजूद इस पद्धति के पक्ष में खड़े रहने की व्यवस्था महज पाठ्यक्रम पूरा करने का दबाव तथा इन सबसे ऊपर शुल्क की वसूली के लिए एक तात्कालिक विकल्प के तौर पर जरूर हो सकती है,परंतु शिक्षा के मूल उद्देश्यों व्यक्ति एवम चरित्र निर्माण,समाज कल्याण और ज्ञान के उत्तरोत्तर विकास में इसकी भूमिका महज़ सहायक की ही है।क्योंकि कक्षीय शिक्षा पद्धति में विद्यार्थी के मनोभाव,उसका जुड़ाव,उसकी कठिनाई,और उसके अंतर्वैयक्तिक संबंधों का पर्यवेक्षण किसी भी ऑनलाइन शिक्षा पद्धति से संभव नहीं।यह शिक्षण पद्धति सिर्फ तात्कालिक विकल्प हो सकती है। यह विद्या दे सकती है परंतु विद्यार्थियों के अंदर बुद्धि,विवेक,चरित्र,और नैतिकता का समावेश नहीं कर सकती।अध्यापको का नज़रिया और तकनीकी व्यवधान आगामी अंक में.....।


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