मातृ दिवस की पूर्व संध्या पर मातृभूमि को नमन

 


राष्ट्र और हमारी जिम्मेदारी



गोरखपुर।
"निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल" 
हिंदी साहित्य के दैदीप्यमान नक्षत्र बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने जब ये पंक्तियां लिखी होंगी,तब उन्होने राष्ट्र के उन्नयन में संवादहीनता को शिद्दत से महसूस किया होगा।लोगों के वैचारिक आदान- प्रदान में आ रही बाधा के दृष्टिगत उन्होंने भाषाओ को सम्वाद का सबसे सशक्त माध्यम मानते हुए इसके विकास और प्रतिपादन पर बल दिया।आज जब देश धर्म, सम्प्रदाय, जाति, वर्ग,भाषा,बोली,आदि के संकुचित दायरे में विभक्त होकर वैचारिक धरातल पर सिमट रहा है,ऐसे में हमारा दायित्व महत्तर होता जा रहा है।हमारा देश हमारी ज़िम्मेदारी है और हम अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन देश को इन तुच्छ विचारधाराओं से ऊपर उठाकर कर सकते हैं।जब वैश्विक पटल पर भारतीय मेधा,और भारतीय संस्कृति का परचम लहरा रहा है,ऐसे में सम्पूर्ण विश्व अपनी विकासपरक योजनाओं के लिए आशा भरी निगाहों से भारत की प्रतिभाओं की तरफ देख रहा है।जिसका प्रत्यक्ष  परिणाम ये देखा जा सकता है कि अमेरिका ब्रिटेन सहित तमाम बड़े और विकसित देशों में बड़े राजनयिक और उनकी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के महत्ववपूर्ण पदों पर भारतीय अथवा भारतीय मूल के लोगो ने आधिपत्य जमाकर प्रतिष्ठा पाई है।
ऐसे में प्रबुद्ध होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि अपने राष्ट्रनिर्माण में बाधक बनी ऐसी छोटी-मोटी विकृतियों,त्रुटियों,अवरोधों को समाज से उखाड़ फेंके।कृषि और पर्यावरण के क्षेत्र को समझने वाले लोगों के लिए ये समझना आसान होगा कि बड़े वृक्षों के पौधरोपण के समय उसका निरंतर ध्यान रखा जाता है कि उसके आसपास घास-फूस, खर-पतवार इत्यादि न रहने पाए,क्योंकि वो उस बड़े वृक्ष के निर्माण प्रक्रिया में बाधक होते हैं।ठीक इसी प्रकार हमारी सोच की व्यापकता, मज़बूत राष्ट्रनिर्माण के लिए ऐसे तुच्छ विचारधाराओं वाले अवरोधों को हटाने के लिए निरंतर प्रेरित करती रहें, हमें ऐसे प्रयास और उद्यम करते रहना चाहिए।इसीलिए हमें स्वयं और अपने आसपास के समाज और वातावरण के लिए ऐसी सोच वाली प्रवृत्तियों के समूल नाश के लिए प्रेरित करने हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहना होगा।
मगर इसमें एक आधारभूत संकट ये है कि इस वैचारिक संकीर्णताओं ने हमारी रगों में इस तरह जगह बना ली है कि हम खुद ही उपरोक्त विसंगतियों के शिकार बने बैठे हैं।जब तक हमारी सोच का दायरा विस्तृत और पारदर्शी नहीं होता,हम राष्ट्रनिर्माण के लिए अपनी जिम्मेदारियों और अपने कर्तव्यों को ईमानदारी से क्रियान्वित नहीं कर सकते।
सबसे पहले हमें स्वयं, फिर परिवार और अंततः समाज के सरोकारों के बारे में बिना किसी पूर्वाग्रह और भ्रम के सोचना,विचार करना और तत्पश्चात कार्यान्वित करना होगा।हमारा राष्ट्र हमारी जिम्मेदारी है।ऐसे में हमे समाज से,सामाजिक सरोकारों से,जो भी छोटी बड़ी अपेक्षाएं हैं,उनमे बाधक बन रही हर उस विकृति को खत्म करने का सतत प्रयत्न तब तक करते रहना होगा,जब तक हम अपने देश को अपनी ज़िम्मेदारी,और सबकी अपेक्षाओं के अनुरूप शक्तिशाली, विकसित,सभ्य,और सांस्कारिक रूप से उज्ज्वल नहीं बना देते।हमें इस राष्ट्र को यहां के नागरिकों की अपेक्षाओं के अनुरूप उसके सबसे खूबसूरत स्वरूप में ढालने हेतु मन, कर्म, वचन, विचार, संस्कृति, संस्कार,सामर्थ्य,और सभ्यता के सबसे दिव्य स्वरूप में लाने हेतु कृतसंकल्पित होना होगा।
जय हिंद,वंदे मातरम।
रिपोर्ट-आनंद सिंह 'मनभावन'।